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28-03-2019 By Admin

सबके राम

राम के बिना भारत का समस्त अस्तित्व अकारण है। भारत की समस्त चेतना और भारत के आध्यात्मिक चैतन्य की वजह का नाम राम है। राम कोई सम्प्रदाय नही है। राम एक विशेषण है, एक चरित्र है।


भारत भूमि पर दैवीय शक्तियों के अवतरण की भाव प्रवण अभिव्यक्ति का नाम राम है। राम के बिना भारत निस्तेज है। भारत राम को एक अस्तित्व के रूप में नहीं, अस्तित्व के कारण के रूप में देखता है। राम के बिना भारत का समस्त अस्तित्व अकारण है। भारत की समस्त चेतना और भारत के आध्यात्मिक चैतन्य की वजह का नाम राम है। राम कोई सम्प्रदाय नही है। राम एक विशेषण है, एक चरित्र है। विशेषणों और चरित्रों के सम्प्रदाय नहीं होते हैं। शील और मर्यादा पांथिक नही होती। ईमानदारी, सच्चाई, करुणा, प्रेम, श्रद्धा देश-काल से बंधे हुए मानवीय अलंकार नहीं है। इन्हें न सम्प्रदाय में बांटा जा सकता है और न ही देशों में। करुणामयी माँ अच्छी है, निष्कलुश पिता अच्छा है, सामर्थ्यवान गुरु सबको चाहिए, इन्हें हिन्दू मुसलमान में नहीं बांटा जा सकता। राम जैसा पुत्र, राम जैसा पती, राम जैसा बेटा, राम जैसा सखा किसी की भी कल्पना का आलंबन हो सकता है। हिन्दू-मुसलमान का फरक नही। एक मुसलमान को भी राम जैसा पुत्र चाहिए, एक मुस्लिम औरत को भी राम जैसा पती चाहिए। कबीर ने ईश्वर के करीब 150 पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया है, लेकिन उनका सबसे प्रिय शब्द राम है और वो हिन्दु-मुसलमान दोनों से सारे नामों को त्याग कर राम का नाम स्वीकारने का आग्रह करते हैं। लेकिन कबीर दोनों को प्रिय है। हिन्दू कहता है कबीर हिन्दू हैं, मुसलमान कहता है कबीर मुसलमान हैं। राम गाँधी के भी प्रिय हैं और जब गाँधी जी ने कहा कि अंग्रेजों का शासन अच्छा हो सकता है लेकिन हमारे रामराज्य का विकल्प नहीं हो सकता है तो किसी मुसलमान ने यह नहीं कहा कि गाँधी एक सांप्रदायिक राज्य की माँग कर रहे है। क्यांकि सबको पता है कि राम संप्रदाय नहीं है। रामराज्य की कल्पना का अर्थ है कि वो भारत का ‘युटोपिया‘ है। कोई ऐसा काल्पनिक राज्य जो न्यूनताओं से संर्पूणता में रिक्त हो। समग्र परिपूर्ण राज्य की कल्पना की भावनात्मक अभिव्यक्ति है रामराज्य। और एक बात बहुत जरूरी है जान लेना कि भारत के रामराज्य बनने का मार्ग राम के चरित्र को जीने से गुजरता है, गाने से नहीं। राम होना हम सब का अभीष्ट है।

सवाल यह नहीं है कि राम थे या नहीं। सवाल यह है कि राम को होना चाहिए या नहीं। सवाल यह नहीं है कि कैकई ने राम के लिए वनगमन माँगा था या नहीं, सवाल यह है कि एक अच्छे पुत्र का अपनी सौतेली माँ के साथ राम जैसा व्यवहार होना चाहिए या नहीं। सवाल यह नहीं कि दशरथ अयोध्या के राजा थे या नहीं सवाल यह है कि किसी राजा पुत्र के मन में राजा के राज्य पर नज़र होनी चाहिए या राम जैसी पिता के प्रति अपनत्व के भाव को निभाने का सामर्थ्य और उत्सुकता। भारतीय इतिहास में राम का अस्तित्व ऋग्वेद में है, उत्तर वैदिककाल में भी। राम की व्याप्ति वैदिकी में है, तो संस्कृत, प्राकृति, पालि, अपभ्रंश, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, बंगाली, अवधी, और खड़ी बोली में भी। ऋग्वेद से लेकर ‘राम की शक्ति-पूजा‘ तक, तुलसी के रामराज से लेकर गाँधी के रामराज्य तक राम की व्याप्ति है।

 

किसी राजा के राज घराने की सम्पति के स्वामित्व के अधिकार का मुकदमा होना एक बात है और भारत के करोड़ों -करोड़ हृदय की आस्था के स्वर्ण शिखर पर विराजमान राम और उनके अस्तित्व को लेकर प्रश्न करना एकदम दूसरी बात। वेद मौखिक है। बुद्ध के पिटकों में संकलित वचनों का संकलन मौखिक हुआ। विनय पिटक मौखिक था, सुत्त पिटक, अभिधम्म पिटक भी मौखिक थे। कबीर का भी जोर आँखां की देखी पर था कागज़ की लेखी पर नहीं। भारत की सांस्कृतिक परंपरा श्रुति परंपरा है। भारत में मुगल काल पहला ऐसा काल है जो कागज़ी दस्तावेजों पर जोर देता है। शायद इसीलिए भारत में मुगल काल को ‘कागजी राज्य‘ के नाम से जाना जाता है। मजेदार बात यह है कि भारत में हम जिनको भी पूजते हैं। भारत में जो भी हमारे आदर्श हैं पुरातात्विक साक्ष्य पर हम किसी के भी जन्म स्थान, उनका बाल्यकाल, उनका यौवन उनके जीवन से जुड़ी अन्य गाथाओं को हम साबित नहीं कर सकते। न बुद्ध को, न महावीर को, न शंकराचार्य को न तुलसी को। यहां तक कि आधुनिक काल में जन्में और भारत के करोड़ों-करोड़ों लोगों के आदर्श जैसेकि महात्मा गाँधी, विवेकानन्द, रामकृष्ण, इनके भी जन्म स्थान की पुरातात्विक आधार पर हम पुष्टि नहीं कर सकते। हम में से शायद ही कोई चार-पांच पीढ़ी पहले अपने पूर्वजों के दादा, परदादा, परदादा, परदादा के होने के भी साक्ष्य कागज और पुरातत्व के आधार पर जुटा सकता है। तो क्या यह मान लिया जाय कि चार-पांच पीढ़ी पहले हम हमारे दादा परदादा का अस्तित्व या जन्म निर्वात में हुआ।

 

राम एक ऐसा अकेला चरित्र है जो भारत के किसी भी विभेद को पाटता है। भाषिक आधार पर तमिल और हिन्दी प्रान्त बंटे हुए हैं। लेकिन राम दोनों के साझे चरित्र और नायक हैं। समय के अंतराल में प्राकृत और अभ्रंश, अवधी और आधुनिक खड़ी बोली हिंदी के बीच में दूरी है, लेकिन राम के नाम पर ये अंतर पट जाते हैं। जैन, बौद्ध और सनातन धर्म के बीच संप्रदाय का भेद हैं। बौद्ध और जैन भारत के मान्यता प्राप्त अल्पसंख्यक संप्रदाय हैं। किन्तु राम सबमें हैं। हमारा सवाल ये है कि यदि न्यायपालिका यह कहता है कि राम का जन्म आयोध्या में नहीं हुआ। अयोध्या मंदिर से जुड़ी हुई भूमि और राम मंदिर से जुड़ी हुई भूमि हिन्दुओं कि नहीं है। वह मुसलमानों की है। तो फिर सवाल यह उठेगा कि आखिर राम पैदा कहां हुए। यह साधारण किसी कत्ल या किसी अपराध का मुकदमा नहीं है। जिसमें कत्ल का आरोपी बाइज्ज्त बरी हो जाता है। लेकिन न्यायपालिका यह चिंता नहीं करती है, कि फिर कातिल कौन है। कत्ल तो हुआ है, अपराध तो घटित हुआ है, और आरोपित व्यक्ति बाइज्जत बरी हुआ है। न्यायपालिका वास्तविक कातिल ढूढ़ने का कष्ट नहीं करती। क्या ऐसा ही कोई निर्णय राम के बारे में भी दिया जा सकता है। कि राम का जन्म उस महल उस राममंदिर की भूमि में नहीं हुआ। तो सवाल उठेगा कि राम का जन्म फिर कहां हुआ, और क्या यह कहकर के ही बात खारिज की जा सकती है कि राम का चरित्र एक काल्पनिक चरित्र है। तुलसी, कम्बन, स्वयंभू, कृतिवास, वाल्मीकि सब एक काल्पनिक चरित्र पर पद्यात्मक उपन्यास लिख रहे थे। फिर सवाल ये भी उठेगा कि क्या भारत के अन्य संप्रदाय के आराध्य देवताओं की वैज्ञानिक पुष्टि हो गई है। क्या उनके अस्तित्व को ले करके भी ऐसे ही सवाल न्यायपलिका में उठाये जा सकते है। और क्या केवल ये साबित कर देने से कि कोई धार्मिक स्थल मूलरूप से उनका नहीं है जिनका कि आज दावा है तो उनके समस्त धार्मिक स्थल मूल अनुयायियों को सौपे जायेगें। हिन्दुस्तान की पहली मस्ज़िद ‘कुव्वत-उल इस्लाम‘ के सामने एक शिलापट्ट लगा हुआ है। जिसमें बाकायदा लिखा हुआ है, कि सत्ताइस मंदिरों को तोड़करके इस मस्जि़द का निमार्ण किया गया। और जब आप  कुबत-उल-इस्लाम मस्ज़िद में प्रवेश करते हैं तो धरणियो और शहतीरों में लगे हुए स्तम्भ उनके कटे हुए वक्ष, नाक, कान, आंखें, भुजाए चीख-चीख कर कहती हैं कि हम मूलरूप से उस स्थापत्य का हिस्सा है जहां मूर्तियों को उकेरा जाना गैर धार्मिक नहीं है। हिन्दुस्तान की दूसरी मस्जिद जिसे ‘अढ़ाइ-दिन-का झोपड़ा‘ के नाम से जाना जाता है- अजमेर में है। उसकी दीवारों मे विग्रहराज-चतुर्थ द्वारा लिखित संस्कृत नाटक ‘हरिकेलि‘ उत्कीर्णित है। निश्चित रूप से ये कुतुबद्दीन, इल्तुतमिश या उनके किसी सहयोगी के द्वारा तो नहीं लिखा गया होगा और न ही तुर्कों के आगमन के बाद यह कोई साहस कर सकता है कि मस्जिद की दीवार पर संस्कृत भाषा में कोई नाटक लिखे। तो मूल मंदिर कहां है? तो जहां यह घोषित रूप से साबित हो चुका है कि धार्मिक स्थल उनका नहीं है जिनका आज इसपर अधिकार है तो जिनका मूलरूप से था उन्हें सौपने का कोई साहस न्यायपालिका, विधायिका द्वारा किया जा सकता है?

 

 क्या केवल हिन्दुस्तान के बहुसंख्यक वर्ग की आस्थाओं की वैज्ञानिक व्याख्या और उसके पुरातात्विक साक्ष्य विद्वानों द्वारा ठूंढ़े जायेगें? क्या हम मान के चलें कि तुलसी झूठा है? क्या हम मान के चले कि कम्बन की परसनॉल्टी झूठ है? फिर समस्या यह उठेगी कि रामचरितमानस का अखंड पाठ जब हम घर में करवायेंगें तो हमारे बच्चे मजाक नहीं उड़ायेगे कि उस राम के चरित्र का पाठ घर में कर रहे हो जो राम कही पैदा नहीं हुए। और फिर सवाल यह भी है कि राम पैदा हुए यह कहा किसने? राम के नाम पर अपनी जिंदगी का समस्त लुटा देने वाला तुलसी राम को दशरथ के परिवार में प्रकट होने की बात करता है।

 

सवाल यह उठता है कि क्या हम ही अपनी धार्मिक भावनाओं की बार-बार वैज्ञानिक परीक्षा करवायेगें। हिन्दू देवताओं पर ही बड़े कलाकारों की नजरें सेकुलर होती हैं। हिन्दू देवताओं की मनोवृत्तियों के मनोवैज्ञानिक विकृतिपूर्ण मनोविश्लेषण होते हैं। हिन्दू देवी-देवता ही तथाकथिक बडे़ कलाकारों की कुत्सित काम मनोवृत्तियों के आलंबन बनते है। सीता पर लक्ष्मण और रावण के साझे दावों का विश्लेषण होता है।

 

राम भारत के समग्र सात्विक मन का समुच्चय हैं। भारत वर्ष के 80 प्रतिशत से ज्यादा हिन्दू नाम राम और विष्णु के पर्यायवाची हैं। मुगल शासक बादशाह अकबर ने राम की इसी सामर्थ्य से परिचित होकर राम-सीता के नाम के सिक्के चलवाए। सिक्कों पर देवनगरी लिपि में राम-सीता लिखवाया। अकबर की राजपूतों के प्रति जो नीति है, जिसे राजपूत ‘पॉलिसी‘ कहते हैं, उस नीति का अधिकांश अकबर की राम के प्रति जो समझ बनी है, राम की सामर्थ्य से जो उसका परिचय हुआ है, उसको जाता है।

हिन्दुस्तान के सभी हिन्दुस्तानियों के राम साझे पूर्वज हैं। राम की अवहेलना सभी को एक जैसा प्रभावित करेगी। राम न बनने की चेष्टा हिन्दू या मुसलमान दोनों के परिवारों को एक जैसा बरबाद करेगी। राम का अपमान एक साथ ही समस्त भारतीय का अपमान है। अच्छाई की चरम कल्पना का नाम राम है। इंसानियत का पर्यायवाची राम है। राम सिर्फ भारतवर्ष नहीं इंसानमात्र की जरूरत है। राम, राम के लिए नहीं हमारे लिए अनिवार्य है। हमारा प्रयास होना चाहिए कि कबीर, गाँधी और तुलसी के राम को हम अपने जीवन में साकार करें और उन्हें सांप्रदायिक होने से बचाएं। 

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